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मनु और शतरुपा का घोर तप एवं उसकी सफलता ShortClip

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Published 21 Jan 2022

दोहा : * एहि विधि बीते बरष षट सहस बारि आहार। संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥ भावार्थ:-इस प्रकार जल का आहार (करके तप) करते छह हजार वर्ष बीत गए। फिर सात हजार वर्ष वे वायु के आधार पर रहे॥144॥ चौपाई : * बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥ बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥1॥ भावार्थ:-दस हजार वर्ष तक उन्होंने वायु का आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैर से खड़े रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी कई बार मनुजी के पास आए॥1॥ * मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥ अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥2॥ भावार्थ:-उन्होंने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान (राजा-रानी अपने तप से किसी के) डिगाए नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था, फिर भी उनके मन में जरा भी पीड़ा नहीं थी॥2॥ * प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥ मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥3॥ भावार्थ:-सर्वज्ञ प्रभु ने अनन्य गति (आश्रय) वाले तपस्वी राजा-रानी को 'निज दास' जाना। तब परम गंभीर और कृपा रूपी अमृत से सनी हुई यह आकाशवाणी हुई कि 'वर माँगो'॥3॥ * मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रंध्र होइ उर जब आई॥ हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥4॥ भावार्थ:-मुर्दे को भी जिला देने वाली यह सुंदर वाणी कानों के छेदों से होकर जब हृदय में आई, तब राजा-रानी के शरीर ऐसे सुंदर और हृष्ट-पुष्ट हो गए, मानो अभी घर से आए हैं॥4॥

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